कागज़ सींचा मैने....
अपने मन की
रोशनाई से
आँखों की
बिनाई से
कुछ हल्के-भारी
शब्दों से
कागज़ सींचा
मैंने !
कुछ चेहरे
गुजरे झूठे-सच्चे से
कुछ सिमटे
से कुछ बिखरे से
उतरते-चढ़ते
उन भावों से
कागज़ सींचा
मैंने !
खुद को भी
देखा कुछ दूरी से
फिर देखा अंतर्मन
से
उन उलझे-सुलझे
खयालों से
कागज़ सींचा
मैंने !
बिन जाने के
फल क्या होगा
आज फलेगा या
बरसों बाद हवा देगा
नन्हीं
आशाओं के फूलों से
कागज़ सींचा
मैंने !
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