Tuesday 13 August 2013

भोर की बरखा

भोर की आँख खुलने से पहले..
आसमान के शामियाने तले..
न जाने किसकी बारात चली..
बादलों ने टकरा के सुर निकाले
बिजलियाँ चमक के तस्वीरें लेती रही..
बरस के सावन सींचता रहा..मौसम.
एक इंद्रजाल -सा फैलाव है...किसी ..
मोहपाश में बंधी कायनात है..
ये कौन से दो दिल मिल रहे हैं ..
आज भोर  की छांव में  !

Friday 9 August 2013

ईद मुबारक !

eid mubarak !
जुम्मे के रोज..उस दिन अलविदा की नमाज के बाद...वक्त गुजर रहा था खरामा-खरामा....खैर-ख्वाह लोग गुजर रहे थे भीड़नुमा शक्ल में...उसी पल थी वो दुआओं में तुम्हारे चिश्ती की दरगाह पे चढ़ायी थी उसने कुछ जूही और गुलाब से गुंथी हुई फूलों की अपनी घनी पलकों में तुम्हारा चेहरा छुपाये हुए..उसने माँगा था तुम्हे उम्रभर के लिए..
फिर लौट पड़ी घर की ओर..माथा टेकने के बाद..इस उम्मीद से के अगली बार दोनों साथ आयेंगे..
कुछ रोज ही गुजरे थे..के इंतजार था सबको..चाँद का...और उसे इंतज़ार था..अपने चाँद की खबर का...अचानक शोर सा हुआ..लोग ख़ुशी से कह रहे थे...चाँद मुबारक ! चाँद मुबारक !....पर उसे खबर नहीं मिली अपने चाँद की.........अगले रोज..ईद के मुबारक के मौके पे...तिरंगे में लिपटा हुआ.. कारवां के साथ कोई आया पड़ोस के चौखट पे...उसने दुमंजिले के छज्जे से देखा..और उसकी नब्ज रुक सी गयी...बेतहाशा भागती सी पहुंची जब वहां...और किसी ने जब चेहरे से तिरंगा हटाया...तो वही चेहरा था वहां जो उसके आँखों में बसा था....
चीखो-पुकार, शोरो-गुल..हाय-तौबा के माहौल में..उसकी ख़ामोशी घुट गयी...पत्थर सी आँखे..पीछे लौटते से कदम ....ढला हुआ दुपट्टा....बिखरा वजूद..और जाने के वाले की गूंजती सी आवाज उसके कानो में....जाने दे मुझे ! मै लौटूंगा....अरे पगली मै गुजरा वक्त नहीं के लौट के ना आ सकूँ..! के लौट के ना आ सकूँ ! लौट के ...??

बैठे हैं...

पलकों के खोल में छुपे खाब हर हाल सच होने की जिद् किये बैठे हैं.. 
न चाँद खिलेगा न तारों की बारात होगी..आज बादल बच्चों सी जिद् किये बैठे हैं..
जब जरा रूठते हैं किसी बात पे वो..अपने हमदर्द से ही मुंह मोड़ बैठे हैं..
सहरा में आज हम समन्दर बनाने के लिए आंसूओ का सैलाब लिए बैठे हैं.

Thursday 1 August 2013

दास्ताँ !

ये अँधेरे उजले-उजले से ..
ये स्याह-स्याह सी रौशनी ..
ये बुझा-बुझा सा चराग है 
या मेरे दिल का नूर कोई ! 

ये उतरा-उतरा चाँद का चेहरा..
या खिला जमीं पे आफ़ताब है ..
ये मुरझाई कोई शाख है ..
या मैं रात सी झुक गयी !

वो जो मैंने कभी कहा नहीं ..

पर तूने जो सब सूना तो था..
वो दबी-घुटी सी बात क्या ..
ज़माने में मोहब्बतों सी बयां हुई !

कब तक जागोगी !


 
 आज आँखे उनींदी सी क्यूँ हैं तुम्हारी ..
 
क्या पलकों के खोल में कोई खाब नया नहीं देखोगी
 
चांदनी के साथ कब तक टहलोगी छत पे...
 
सूरज का उजाला सुबह को तुम्हे ढूंढेगा..
 
तारों से कब तक मोहब्बत बयां करोगी
 
भोर का तारा भी तो तुम्हे ही पूछेगा
 
कुमुदनी को कब तक नजरों से चूमोगी
 
कमल भी तो खिलेगा तुम्हारी ही गंध से
 
ये दिन -रात के फासले जो तुमसे ही खत्म होते हैं
 
उन दोनों में बंटी हो तुम अपनी मौन स्वीकृति के साथ .