Saturday, 30 November 2013

आओ ! बारादरी के बाहर..



·      आओ ! बारादरी के बाहर
उन सीढ़ियों पे साथ बैठे
चढती हुई सीढ़ी पे तुम
उतरती हुई सीढ़ी पे मैं
धुंध की चादर ओढ़े
जब मौसम करवट लेगा
तो हम दुशाले में लिपटे
अपनी हथेलियों में धूप ढूंढेंगे
एक-दूसरे को, आँखों की आंच में
सेंकते हुए मौसम को मात देंगे .

आओ ! चांदनी रात में
बर्फीले पहाड़ों पे साथ घूमें
झुके दरख्तों को भीगे सुरों से
हवा थपकियाँ दे के जब सुलायेगी
पहाड़ी की चोटी पे चाँद पिघलेगा
उसका अर्क तुम अपने होंठो से
उठा के मेरी जुबां पे रख देना
हम दोनों खुले आकाश के नीचे
जमीं हुई झील की चादर पे नंगे पाँव से
सितारे मसल के सर्द हवा को आंच देंगे.

 

Thursday, 28 November 2013

अँधेरी लड़की और एक खाब !

इसी मौसम की बात थी पिछले बरस की , दिन कुछ झुके झुके से रहते थे ..सूरज कुछ हंसी दबा के ..बस मुस्कुरा के रह जाता था...और रात सर्द-सर्द होकर सारे आलम में फ़ैल जाती थी..धुंध अपने को समेटने में  अलसाती थी..और चिड़िया चहक-चहक के उस आलसी को चिढाती थी...मगर वो आलसियों की आका सी और फ़ैल के चारों ओर बिखर जाती ..और  नन्ही चिड़िया भी सहम के अपने घोंसले में दुबक जाती थी.
 
इसी मौसम की बात थी पिछले बरस ..वो अँधेरी लड़की , सोते घर में अपनी  खनक दबा कर जागती रातों में खाब से मिलने दबे पाँव छत पे जाती थी..सन्नाटे को चीरती झींगुरों की आवाजों के बीच खाब मैले-कुचैले कपड़ों में बेसब्र खड़ा उसकी आँखों में सजना चाहता था...हर रोज ! ..मगर हर रोज .....
खाबों का आँखों से गुजरना अच्छा नहीं होता ..यूँ नींदे बिखेर कर रातों को मचलना अच्छा नहीं होता ... आखिर हुआ न वही...उस रात सिर्फ वो दोनों ही नहीं जगे ..जागे कुछ  साँसे निगलने वाले दरिन्दे ..गला घोंटने , खाब तोड़ने, आँखें नोचने  .....और फिर... ....उस दबे पांव का दबे पांव पीछा करने लगे  वो ... अँधेरी लड़की आने वाले पलों से बेखबर ,अनजान ,मासूम फिर मिली खाब से मगर मिली आखिरी बार  !!! ....फिर वही थी अलसाई धुंध ..वही झींगुरों की आवाजें.. पर उसी सन्नाटे में चीखती  और दो आवाजें ..एक अँधेरी लड़की की और दूसरी दम तोड़ते खाब की  !!!
 
     बहुत सुनी होगी ऐसी कहानियां तुमने भी और मैंने भी कुछ जानी-पहचानी तो कुछ अजनबी ,कुछ ढकी मुंदी तो कुछ खुली हुई ..पर अगर मिलो इन किरदारों से तो बस इतना पूछना के -- " वो प्यार ,वो दुलार, वो पुचकार देने का समय क्यूँ नहीं था उनके पास.. जिसकी उस मासूम को दरकार थी ..उसकी साँसे घुट गयी नब्ज थमी और दम निकल गया ...पर सुनो ! उस उम्र को कहाँ खबर होती है तुम्हारी बंदिशों की ,रीत-कुरीत की ,तुम्हारी बादशाहत की और फकीरी के फर्क की..... कहाँ खबर होती है  किस राह जाना है वो तो चल दिए उस हाथ को थाम जिसने उसके सर पे प्यार से हाथ फेर दिया वो भी तब जब तुमने अपनी उँगलियाँ छुड़ा ली थी मशरूफियत के नाम पे ...
          जानती हूँ उन पत्थर दिलों को हिलाने से फायदा नहीं ...जो जरा भी इंसानियत का इल्म होता तो यूँ कोई जिन्दगी का दुश्मन नहीं होता और जिन्हें इल्म है वो ये करेंगे ही क्यूँ ? बस यूँ ही कह दी मैंने तुमसे  ..एक  कहानी थी खत्म हो गई !..हाँ , खत्म हो गई !! 
  

 


Thursday, 21 November 2013

<< इक आवाज और नाम तुम्हारा >>




पूनम  की रात में चाँद जब टहलता है आसमान में  
 
शहद में डूबी एक आवाज पुकारती होगी नाम तुम्हारा !              
 
बर्फ में भीगे पहाड़ों से टकरा के हवा जब गुजरती है
 
उदास आवाज में वादियों में गूंजता होगा नाम तुम्हारा ! 
 
चिनार जब झूमते हैं और गिरती हैं कुम्हलाई पत्तियां

 
मुरझाई आवाज में हर पत्ते से झरता होगा नाम तुम्हारा !
 
झील के नीले पानी में हीरे -सी चमकती है जब चांदनी  
 
भीगी -भीगी इक आवाज में डूबता होगा नाम तुम्हारा !         

 
 
 
 
 

Wednesday, 20 November 2013

ज़र्द सी एक पाती !!!

      सर्द सी एक रात में
    जर्द सी एक पाती..
  कांपती -थरथराती
  शाख से कुछ जुडी
  पर कुछ-कुछ अलग
  बेरहम हवा के रहम पर
  चंद और साँसे या आखिरी पल
  उफ़ ! टूट गया वो अंतिम तार
  लहराती हवा के झोंके के साथ
  जमीं में दफ्न होती हुई..
  शाख कुछ देर झुकी तो थी
  फिर तन गई अगले ही पल
  नयी कोंपलों के इंतज़ार में
  अगले मौसम की बहार में
  पर जर्द सी वो एक पाती..
    गुम हो गई कांपती-थरथराती. 

न कुछ कहते..........न सुनते ..

  सर्दियों में शाल में लिपटे हुए दोनों
   कहीं दूर क्षितिज की ओर देखते हुए..
   एक-दूसरे से न कुछ कहते न सुनते
   गर्म कॉफ़ी को घूंट-घूंट भरते हुए
   जैसे एक प्याले में ही दो जोड़ी होंठ
   अपने-अपने हिस्से का प्यार जीते हुए !
 


 
 

    


 नर्म दूब पे लेटे हुए गुनगुनी धूप के साथ
 मौसम की खुशबू को साँसों में भरते हुए 

 एक दूसरे से न कुछ कहते न सुनते
 आँचल का इक टुकड़ा आँखों पे रखे हुए
 जैसे एक ही छाँव में दो जोड़ी आँखें
 अपने-अपने हिस्से का प्यार जीते हुए !

            
 
 
 

 
 
 पहाड़ी की ढलान पे साथ चलते-चलते
 बहकती पवन के झोके के साथ मुड़ते हुए
 एक-दूसरे से न कुछ कहते न सुनते
 कभी हाथ मिलते हुए कभी छूटते हुए
 जैसे एक-दूजे के साथ में दो जोड़ी हाथ
 अपने-अपने हिस्से का प्यार जीते हए..


 


   सर्द बर्फीली रात में चाँद के साथ
   अलाव की ताप जिस्म में भरते हुए
   एक दूसरे न कुछ कहते न सुनते
   अपनी-अपनी आंच से दूर बैठे हुए
   जैसे एक जोड़ी बदन दो आत्माओं के साथ
   अपने अपने हिस्से का प्यार जीते हुए..

Monday, 18 November 2013

जुगनुओं ने संभाली थी रौशनी !


रात ! जुगनुओं ने संभाली थी रौशनी

अँधेरा ! घना था ,घना काजलों की तरह

काज़ल ! किनारे कहीं पोर से उठता हुआ

बढ़ता हुआ जैसे,.... जैसे पीर की तरह

चुपचाप अंतर्मन में फैलता गहरा धुआं

धुआं ! आँखों में चुभता-जलता  हुआ

के अचानक खिलखिला के वो हंस पड़ी

जैसे किसी मासूम बच्चे की सलोनी हंसी

न जाने कितने जुगनू चमके उस एक क्षण में

आँखों ने मल कर धोया दुःख का धुआं

पीर पिघलती गयी गर्म मोम की तरह

काज़ल सिमट कर बन गया बस एक आंसू

अँधेरा घना था, ..घना दूर तक फैला हुआ

पर मुस्कुराते जुगनुओं ने संभाली रौशनी !