रात ! जुगनुओं ने
संभाली थी रौशनी
अँधेरा ! घना था ,घना काजलों की तरह
काज़ल ! किनारे
कहीं पोर से उठता हुआ
बढ़ता हुआ जैसे,.... जैसे पीर की तरह
धुआं ! आँखों में
चुभता-जलता हुआ
के अचानक खिलखिला
के वो हंस पड़ी
जैसे किसी मासूम
बच्चे की सलोनी हंसी
न जाने कितने
जुगनू चमके उस एक क्षण में
आँखों ने मल कर
धोया दुःख का धुआं
पीर पिघलती गयी
गर्म मोम की तरह
काज़ल सिमट कर बन गया
बस एक आंसू
अँधेरा घना था, ..घना दूर तक फैला हुआ
पर मुस्कुराते
जुगनुओं ने संभाली रौशनी !
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर
thanks sir !
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