Saturday 11 January 2014

कुदरत !

कायनात के सातवें आसमान से लेकर
दूसरे छोर तक जो नीलम के फाहे की कनात
बिछी देख रहे हो न ! यही महफूज रखती है
जमीं के हर जर्रे को अपने आगोश में समेटे हुए !

 
उमस भरे मौसम में हवा बिखरा जाती है अपने साथ
शाम का गुलाबी आकाश.. एक पुरवाई का झोंका 
चाँद के तकिये का कुछ चटकीला रेशमी नूर का टुकड़ा
उन्हें नर्म तारों की रौशनी से हौले-हौले बुनते हुए !

 
बादल फूटते है..बिजली खुद से ही चौंक जाती है
फुहारे खेलती हैं धरती के आंगन में फुदकती हुई
भीगता है जिस्म खिलता है मन हरियाले मौसम सा
सूरज झांकता है दरीचे से सतरंगिया इन्द्रधनुष बिखराते हुए !

 
सर्द रातों में भी आंच के फूल खिलाने के लिए
वादियां चुनती रहती हैं सुनहरे फूल किरणों के
जिस्म जम जाते हैं बर्फीले पहाड़ों की तरह
आँख रोशन है चरागों सी..लबों के अलाव सुलगाते हुए !

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