Saturday 4 January 2014

अंजुल भर धूप !


 
 
   जब कांपते हैं जुगनू,थरथराती है हवा  

 ठिठुरती है रात अपने अन्धेरेपन को ओढ़े

 ओस गिरती है आसमाँ से जमीं के हर जर्रे पे

 शज़र दांत किटकिटाते हैं..फूल कुम्हलाएँ है सारे

 नदियाँ जम गई हैं एक ही ठिकाने पे ,पाँव हिलते नहीं

 वादियाँ बैठी हैं अपने जानों में मुँह छुपाये.. ऐसे में

 कहीं से भर लाओ जानम ! एक अंजुल भर धूप.. या
 
भर दो मेरी हथेली में अपनी रेशमी साँसों की तपिश.

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