आज आँखे उनींदी सी क्यूँ हैं तुम्हारी ..
क्या पलकों के खोल में कोई खाब नया नहीं देखोगी
चांदनी के साथ कब तक टहलोगी छत पे...
सूरज का उजाला सुबह को तुम्हे ढूंढेगा..
तारों से कब तक मोहब्बत बयां करोगी
भोर का तारा भी तो तुम्हे ही पूछेगा
कुमुदनी को कब तक नजरों से चूमोगी
कमल भी तो खिलेगा तुम्हारी ही गंध से
ये दिन -रात के फासले जो तुमसे ही खत्म होते हैं
उन दोनों में बंटी हो तुम अपनी मौन स्वीकृति के साथ .
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