·आओ ! बारादरी के
बाहर उन सीढ़ियों पे साथ बैठे चढती हुई सीढ़ी पे तुम उतरती हुई सीढ़ी पे मैं धुंध की चादर ओढ़े जब मौसम करवट लेगा तो हम दुशाले में लिपटे अपनी हथेलियों में धूप ढूंढेंगे एक-दूसरे को, आँखों की आंच में सेंकते हुए मौसम को मात देंगे . आओ !चांदनी रात में बर्फीले पहाड़ों पे साथ घूमें झुके दरख्तों को भीगे सुरों से हवा थपकियाँ दे के जब सुलायेगी पहाड़ी की चोटी पे चाँद पिघलेगा उसका अर्क तुम अपने होंठो से उठा के मेरी जुबां पे रख देना हम दोनों खुले आकाश के नीचे जमीं हुई झील की चादर पे नंगे पाँव से सितारे मसल के सर्द हवा को आंच देंगे.
सच?
ReplyDeleteबहुत उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
thanks !
ReplyDelete