Wednesday, 25 December 2013
Tuesday, 24 December 2013
Sunday, 22 December 2013
सांझ का तारा ***

अंधियारे के दामन से जाने कैसे
सरक गया इक चंचल तारा
!
चांदी के तारों में गूंथा ..उजियारा..
चमकीला.. लहकता ..मचलता.
नन्हे बच्चे सा..जैसे आकाश की
गोद में खेलता सांझ का फूल.
वो चमके जैसे आँखों में उम्मीदों की धूप..
जैसे रात चढ़े चाँद का रूप.
आसमान की छत पे अकेला..
खोजता-फिरता संगी-साथी..कुछ बाराती
वो प्रेम का तारा ..अपने कुनबे से दूर-दूर..
मेरी आँखों के आस-पास .
दो राहों पे पाँव है उसके ..एक
गुजरती शाम की गली दूजे रात की राह.
भटकता -फिरता है ऐसे जैसे
किसी मासूम को माँ के आँचल की चाह.
फिर भी चमक-चमक कर दिखलाता है
भूले राही को मंजिल का रस्ता .
सांवली आकाशी छतरी के चौराहे पे
दिशा बताता एक सितारा अलमस्ता !
Wednesday, 18 December 2013
\\ सर्दियाँ और महंगी धूप //

एक धुंध सी बिखरी होती होगी... सुबह के साथ.
और धूप कितनी महंगी होगी इन दिनों,क्या भाव होंगे ?
वो धूप जैसे अधपकी सी ही पतीले से उतार दी गयी हो,
उसपे भी कुछ छन कर आती होगी गुलमोहर की छाँव से.
कैसे धुएं के छल्ले से निकलते होंगे मुँह से हर बात पे ..
पश्मीना के शालों में लिपटे हुए लोग छतों पे सूरज समेटते होंगे.
रंग-बिरंगे डहलिया-गुलदाउदी कैसे मुस्कुराते होगें ओस में भीग कर
गर्म उबलती चाय लबों तक आते-आते ही सर्द हो जाती होगी..
दुपहर अब खुल के नहीं बरसती होगी, शाम आते ही गुजर जाती होगी
रात जागती होगी अलाव के साथ फिर दुबक जाती होगी नर्म रजाइयों में.
मगर यहाँ जाड़ों का मौसम लिपटा है, इक कागज़ के टुकड़े में
कुछ अल्फाजों के साथ !
Monday, 16 December 2013
// इकरारनामा \\
इकरारनामा !
एक कागज़ के टुकड़े में लिपटी
रोशनाई से लिखी चंद तहरीरें
जो दिलों के दरमयां होती गुफ्तगू की
सच्ची और पाक गवाह हैं और रहेंगी !
ये इकरारनामा संभाल रखना..
कभी दिल जब बेचैनियत से घबरा उठे
एक कागज़ के टुकड़े में लिपटी
रोशनाई से लिखी चंद तहरीरें
जो दिलों के दरमयां होती गुफ्तगू की
सच्ची और पाक गवाह हैं और रहेंगी !
ये इकरारनामा संभाल रखना..
कभी दिल जब बेचैनियत से घबरा उठे
तो इसे दराज के तहखानों से उठा लेना
और पढना ..जो न सिर्फ तसल्ली ही देगा तुम्हे
बल्कि देगा मोहब्बत को महफूज़ रखने के हौसले भी !!
कमजोर लम्हों को पुख्ता करनेवाला ये इकरारनामा
न जाने कितने ही नए परिंदों को छाँव देगा
इसका हर लफ्ज कई सदियों तक गूंजेगा
हमारे ख़ाक हो जाने पर भी ये साँसे लेगा
और बदस्तूर जारी रहेगा ये इकरार दो रूहों के बीच !!!
और पढना ..जो न सिर्फ तसल्ली ही देगा तुम्हे
बल्कि देगा मोहब्बत को महफूज़ रखने के हौसले भी !!
कमजोर लम्हों को पुख्ता करनेवाला ये इकरारनामा
न जाने कितने ही नए परिंदों को छाँव देगा
इसका हर लफ्ज कई सदियों तक गूंजेगा
हमारे ख़ाक हो जाने पर भी ये साँसे लेगा
और बदस्तूर जारी रहेगा ये इकरार दो रूहों के बीच !!!
अफ़साने .. कुछ कहे ..कुछ सुने !
कुछ नाजुक नफीस रास्ते
दिलों के अफ़साने में मिले
राह-राह फूल खिले हुए
मौसम भी खुशनुमा बड़ा
मंजिलों का पता न था ..
और कारवां भी अजीब था
बस दो लोगों की भीड़ थी
और उन्ही का साथ था
उनकी नजर में वो ही थे
पर नजर तो कई और भी थी
फिर न जाने कौन सी नजर पड़ी
जो नजर लगा गई ..
मौसम का मिजाज़ बदल गया
सारे सुर्ख गुलाब जर्द हुए
मंजिले तो पहले ही लापता थी..
फिर .. साथ भी छूट गया
न कारवां रहा .. न रास्ते
बस अफ़साने सुने..अफ़साने कहे
!
Thursday, 12 December 2013
Tuesday, 10 December 2013
Monday, 9 December 2013
निर्झर प्रेम =====
जब मद्धम सी आंच में रात पकती है
सितारे सुलग उठते हैं जब सारे के सारे
चाँद..बादल..हवा और शरबती आँखों वाला आसमां
इनके साथ जब झुक-झूमती है धरती और मौसम
ऐसे में ही अपनी चांदनी से धुली आँखों से ...
तुम्हरी मुखरता जब कभी मुझे आवाज देती है
एक लहक उठती है उन्मत्त ह्रदय के छोर पे
और जाग जाता है निर्झर प्रेम का कुंवारापन !
सितारे सुलग उठते हैं जब सारे के सारे
चाँद..बादल..हवा और शरबती आँखों वाला आसमां
इनके साथ जब झुक-झूमती है धरती और मौसम
ऐसे में ही अपनी चांदनी से धुली आँखों से ...
तुम्हरी मुखरता जब कभी मुझे आवाज देती है
एक लहक उठती है उन्मत्त ह्रदय के छोर पे
और जाग जाता है निर्झर प्रेम का कुंवारापन !
Tuesday, 3 December 2013
Monday, 2 December 2013
धरती ने कुछ फूल खिलाये ... ..

जब आदम-हव्वा अजनबी थे
हवा किसी बंद गुफा में सोई थी
समन्दर प्यासे हुआ करते थे
जब जमीं में ठहराव नहीं था...
आसामन अपने लिए रंग ढूंढ़ता था
सितारे जमीं पे चला करते थे
चाँद रौशनी से जुदा एक पिंड था
सूरज में तपिश नहीं थी
बादलों से आग बरसती थी
तभी एक रोज दरख्तों से दूर
अपने-अपने साए तले मिले वो
हवाएं लहरा के दरख्तों को चूमने लगीं
समन्दरों ने नदियों के संग प्यास बुझाई
जमीं ठहर कर पनाहगाह हो गई
आसामन ने हर पहर के लिए रंग चुना
सितारे ख़ुशी से चमक के आसामन छूने लगे
चाँद चांदनी को छू के रोशन हुआ
सूरज ने बादलों की आग समेट ली
बादल नर्म फाहे से झूमते हुए बरसे
इस तरह धरती ने कुछ फूल खिलाये
दुनिया जगी और जिन्दगी रवां हो चली .
गुलाबी दीवरों वाला वो कमरा !

कोने में खड़ा, जिसके गुलाबी दीवारों पे ..
मैं चिपकाती थी कागज की रंगीन तितलियाँ .
दरवाजे पे लिख रखा था मैंने नाम मेरा ...
और एक ताकीद "आने से पहले आहट कीजे"
उसपे एक पिघलते नीलम सा रेशमी पर्दा.
एक दरीचा,जिसपे आती थी फुदकती गिलहरी
हवाएं वही बैठी पहरों बातें करती मुझसे
वहीँ उतरता चाँद मेरे खयालों के सहारे.
कुछ किताबों के पुलिंदे मेज पे, एक कलम को ..
सीने से लगाये सुनहरी डायरी, कुछ गुलमोहर के फूल
और कुछ मुक्कमल गजलों के भीगे अफ़साने .
रंग-बिरंगी चमक के साथ कोने में सजा एक आईना..
जो मुझे देखता था छुप-छुप..मैं जब झाँकती थी उसमे ..
तो वहां कोई नहीं होता था..मेरे सिवा .
मगर जब बिछड़ा वो कमरा तो दे गया यादें
और करता रहा इंतज़ार मेरे लौटने का
मेरे बचपन की तस्वीरें सीने से लगाये .
दिन गुजरे,साल-दर-साल निकलते चले गए ..
नाम के कुछ अक्षर मिट गए,आईना अपनी चमक खो बैठा
किताबें बुजुर्ग हो गईं पर दरवाजा अब भी इंतज़ार में है .
लेकिन वो कमरा पुराना हो गया या कहिये बूढ़ा हो गया ..
ख़यालों की भीड़ में मैं उसे याद करती हूँ .. और
वो भी तन्हा मुझे याद करता है ...वो गुलाबी कमरा !!!
Saturday, 30 November 2013
आओ ! बारादरी के बाहर..
· आओ ! बारादरी के
बाहर
उन सीढ़ियों पे साथ बैठे
चढती हुई सीढ़ी पे तुम
उतरती हुई सीढ़ी पे मैं
धुंध की चादर ओढ़े
जब मौसम करवट लेगा
तो हम दुशाले में लिपटे
अपनी हथेलियों में धूप ढूंढेंगे
एक-दूसरे को, आँखों की आंच में
सेंकते हुए मौसम को मात देंगे .
आओ ! चांदनी रात में
बर्फीले पहाड़ों पे साथ घूमें
झुके दरख्तों को भीगे सुरों से
हवा थपकियाँ दे के जब सुलायेगी
पहाड़ी की चोटी पे चाँद पिघलेगा
उसका अर्क तुम अपने होंठो से
उठा के मेरी जुबां पे रख देना
हम दोनों खुले आकाश के नीचे
जमीं हुई झील की चादर पे नंगे पाँव से
सितारे मसल के सर्द हवा को आंच देंगे.
Thursday, 28 November 2013
अँधेरी लड़की और एक खाब !
इसी मौसम की बात थी पिछले बरस की , दिन कुछ झुके झुके से रहते थे ..सूरज कुछ हंसी दबा के ..बस मुस्कुरा के रह जाता था...और रात सर्द-सर्द होकर सारे आलम में फ़ैल जाती थी..धुंध अपने को समेटने में अलसाती थी..और चिड़िया चहक-चहक के उस आलसी को चिढाती थी...मगर वो आलसियों की आका सी और फ़ैल के चारों ओर बिखर जाती ..और नन्ही चिड़िया भी सहम के अपने घोंसले में दुबक जाती थी.
इसी मौसम की बात थी पिछले बरस ..वो अँधेरी लड़की , सोते घर में अपनी खनक दबा कर जागती रातों में खाब से मिलने दबे पाँव छत पे जाती थी..सन्नाटे को चीरती झींगुरों की आवाजों के बीच खाब मैले-कुचैले कपड़ों में बेसब्र खड़ा उसकी आँखों में सजना चाहता था...हर रोज ! ..मगर हर रोज .....
खाबों का आँखों से गुजरना अच्छा नहीं होता ..यूँ नींदे बिखेर कर रातों को मचलना अच्छा नहीं होता ... आखिर हुआ न वही...उस रात सिर्फ वो दोनों ही नहीं जगे ..जागे कुछ साँसे निगलने वाले दरिन्दे ..गला घोंटने , खाब तोड़ने, आँखें नोचने .....और फिर... ....उस दबे पांव का दबे पांव पीछा करने लगे वो ... अँधेरी लड़की आने वाले पलों से बेखबर ,अनजान ,मासूम फिर मिली खाब से मगर मिली आखिरी बार !!! ....फिर वही थी अलसाई धुंध ..वही झींगुरों की आवाजें.. पर उसी सन्नाटे में चीखती और दो आवाजें ..एक अँधेरी लड़की की और दूसरी दम तोड़ते खाब की !!!
बहुत सुनी होगी ऐसी कहानियां तुमने भी और मैंने भी कुछ जानी-पहचानी तो कुछ अजनबी ,कुछ ढकी मुंदी तो कुछ खुली हुई ..पर अगर मिलो इन किरदारों से तो बस इतना पूछना के -- " वो प्यार ,वो दुलार, वो पुचकार देने का समय क्यूँ नहीं था उनके पास.. जिसकी उस मासूम को दरकार थी ..उसकी साँसे घुट गयी नब्ज थमी और दम निकल गया ...पर सुनो ! उस उम्र को कहाँ खबर होती है तुम्हारी बंदिशों की ,रीत-कुरीत की ,तुम्हारी बादशाहत की और फकीरी के फर्क की..... कहाँ खबर होती है किस राह जाना है वो तो चल दिए उस हाथ को थाम जिसने उसके सर पे प्यार से हाथ फेर दिया वो भी तब जब तुमने अपनी उँगलियाँ छुड़ा ली थी मशरूफियत के नाम पे ...
जानती हूँ उन पत्थर दिलों को हिलाने से फायदा नहीं ...जो जरा भी इंसानियत का इल्म होता तो यूँ कोई जिन्दगी का दुश्मन नहीं होता और जिन्हें इल्म है वो ये करेंगे ही क्यूँ ? बस यूँ ही कह दी मैंने तुमसे ..एक कहानी थी खत्म हो गई !..हाँ , खत्म हो गई !!
इसी मौसम की बात थी पिछले बरस ..वो अँधेरी लड़की , सोते घर में अपनी खनक दबा कर जागती रातों में खाब से मिलने दबे पाँव छत पे जाती थी..सन्नाटे को चीरती झींगुरों की आवाजों के बीच खाब मैले-कुचैले कपड़ों में बेसब्र खड़ा उसकी आँखों में सजना चाहता था...हर रोज ! ..मगर हर रोज .....

बहुत सुनी होगी ऐसी कहानियां तुमने भी और मैंने भी कुछ जानी-पहचानी तो कुछ अजनबी ,कुछ ढकी मुंदी तो कुछ खुली हुई ..पर अगर मिलो इन किरदारों से तो बस इतना पूछना के -- " वो प्यार ,वो दुलार, वो पुचकार देने का समय क्यूँ नहीं था उनके पास.. जिसकी उस मासूम को दरकार थी ..उसकी साँसे घुट गयी नब्ज थमी और दम निकल गया ...पर सुनो ! उस उम्र को कहाँ खबर होती है तुम्हारी बंदिशों की ,रीत-कुरीत की ,तुम्हारी बादशाहत की और फकीरी के फर्क की..... कहाँ खबर होती है किस राह जाना है वो तो चल दिए उस हाथ को थाम जिसने उसके सर पे प्यार से हाथ फेर दिया वो भी तब जब तुमने अपनी उँगलियाँ छुड़ा ली थी मशरूफियत के नाम पे ...
जानती हूँ उन पत्थर दिलों को हिलाने से फायदा नहीं ...जो जरा भी इंसानियत का इल्म होता तो यूँ कोई जिन्दगी का दुश्मन नहीं होता और जिन्हें इल्म है वो ये करेंगे ही क्यूँ ? बस यूँ ही कह दी मैंने तुमसे ..एक कहानी थी खत्म हो गई !..हाँ , खत्म हो गई !!
Wednesday, 27 November 2013
Monday, 25 November 2013
Saturday, 23 November 2013
Thursday, 21 November 2013
<< इक आवाज और नाम तुम्हारा >>
पूनम की रात में चाँद जब टहलता है आसमान में
शहद में डूबी एक आवाज पुकारती होगी नाम तुम्हारा !
बर्फ में भीगे पहाड़ों से टकरा के हवा जब गुजरती है
उदास आवाज में वादियों में गूंजता होगा नाम तुम्हारा !
चिनार जब झूमते हैं और गिरती हैं कुम्हलाई पत्तियां
मुरझाई आवाज में हर पत्ते से झरता होगा नाम तुम्हारा !
झील के नीले पानी में हीरे -सी चमकती है जब चांदनी
भीगी -भीगी इक आवाज में डूबता होगा नाम तुम्हारा !
Wednesday, 20 November 2013
ज़र्द सी एक पाती !!!
सर्द सी एक रात
में
जर्द सी एक
पाती..
कांपती -थरथराती
शाख से कुछ जुडी
पर कुछ-कुछ अलग
बेरहम हवा के रहम पर
चंद और साँसे या आखिरी पल
उफ़ ! टूट गया वो अंतिम तार
लहराती हवा के झोंके के साथ
जमीं में दफ्न होती हुई..
शाख कुछ देर झुकी तो थी
फिर तन गई अगले ही पल
नयी कोंपलों के इंतज़ार में
अगले मौसम की बहार में
पर जर्द सी वो एक पाती..
गुम हो गई कांपती-थरथराती.

कांपती -थरथराती
शाख से कुछ जुडी
पर कुछ-कुछ अलग
बेरहम हवा के रहम पर
चंद और साँसे या आखिरी पल
उफ़ ! टूट गया वो अंतिम तार
लहराती हवा के झोंके के साथ
जमीं में दफ्न होती हुई..
शाख कुछ देर झुकी तो थी
फिर तन गई अगले ही पल
नयी कोंपलों के इंतज़ार में
अगले मौसम की बहार में
पर जर्द सी वो एक पाती..
गुम हो गई कांपती-थरथराती.
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