Sunday, 29 September 2013
Friday, 27 September 2013
Tuesday, 24 September 2013
Monday, 23 September 2013
चनाब बहती रही.....रोज की तरह ...
चनाब बहती रही रोज की तरह..
अपने दो जुदा-जुदा किनारों के साथ
उसके किनारे तो नहीं मिले कभी..
पर मिलते देखा उसने उन दोनों को..
एक मिर्जा ! जो आया परदेस से..खोजने अपना यार..
एक हीर ! जो कच्चे मिटटी के घड़ों में भर ले जाती सांचा प्यार
और चनाब बहती रही रोज की तरह..
उसी की मिटटी ,उसी का पानी...उससे ही बनते घड़े
पर बनाते दो सजीले सुघढ़ हाथ.. हीर के
और रांझा चराता भेंडे चनाब के किनारे
अपने दो जुदा-जुदा किनारों के साथ
उसके किनारे तो नहीं मिले कभी..
पर मिलते देखा उसने उन दोनों को..
एक मिर्जा ! जो आया परदेस से..खोजने अपना यार..
एक हीर ! जो कच्चे मिटटी के घड़ों में भर ले जाती सांचा प्यार
और चनाब बहती रही रोज की तरह..
उसी की मिटटी ,उसी का पानी...उससे ही बनते घड़े
पर बनाते दो सजीले सुघढ़ हाथ.. हीर के
और रांझा चराता भेंडे चनाब के किनारे
और चनाब बहती रही रोज की तरह..
उसके पानी में पाँव डाले बिताये जाने कितने दिन
उसके पानी में देखा दोनों ने चाँद जाने कितनी रातें
उसके पानी ने देखा दो अक्स कभी दूर तो कभी पास
उसके पानी में पाँव डाले बिताये जाने कितने दिन
उसके पानी में देखा दोनों ने चाँद जाने कितनी रातें
उसके पानी ने देखा दो अक्स कभी दूर तो कभी पास
और चनाब बहती रही रोज की तरह..
उसके मीठे पानी से धोये खारे आंसूं दोनों ने
उसके मीठे पानी को हाथ में ले उठाई
सौगंध जुदा न होने की दोनों ने..
और चनाब बहती रही रोज की तरह..
रात अंधेरी कच्चे घड़े के सहारे पार जाना था उसे..
मिटटी खो गयी मिटटी में...सब रंग पानी हो गया
हीर खो गयी रांझे में,दोनों चनाब हो गए..
फिर चनाब बहती रही रोज की तरह !
उसके मीठे पानी से धोये खारे आंसूं दोनों ने
उसके मीठे पानी को हाथ में ले उठाई
सौगंध जुदा न होने की दोनों ने..
और चनाब बहती रही रोज की तरह..
रात अंधेरी कच्चे घड़े के सहारे पार जाना था उसे..
मिटटी खो गयी मिटटी में...सब रंग पानी हो गया
हीर खो गयी रांझे में,दोनों चनाब हो गए..
फिर चनाब बहती रही रोज की तरह !
Sunday, 22 September 2013
Friday, 20 September 2013
दो पहलू !
जुगुनू ने अपनी चमकती रौशनी बिखेरी अन्धकार में..
जैसे चुनौती दे रहा हो अपने गुरुर में ....जलते- बुझते हुए.सा..
अन्धकार ने गंभीरता लपेट रखी है...अपनी गहरी मुस्कानों में..
अन्धकार ने कहा- मुझसे ही है अस्तित्व तुम्हारा..निकलो !
मेरे दामन से कभी उजली धूप में.....यूँ ही चमक के दिखाओ..
हर हाल जरुरी है दो पहलूओं का होना..गम ही दिखाता है....
खुशियों के चौराहे, अन्धकार ही देता है रौशनी की कद्र..
निराशाओं ने ही दी है आशाओं को दस्तक .
"रिश्ते"
हों इतने सच्चे और पवित्र
जैसे माँ का अपने अजन्मे,
कोख में पलते बच्चे से !
एक कमल नाल पे पलता
हुआ रिश्ता" सब उसी से
हवा,पानी,जीवन और पोषण
पर सब स्वाभाविक और निश्चिन्त.
और एक रिश्ते को पोसती हुई
बिगड़ी शक्ल,बेहाल तबियत,बेडौल शरीर
के बावजूद खुश, खिलखिलाती
भविष्य के सपने सुनहरे तागों से
बुनते हुए रिश्ते !
हों इतने सच्चे और पवित्र
जैसे माँ का अपने अजन्मे,
कोख में पलते बच्चे से !
एक कमल नाल पे पलता
हुआ रिश्ता" सब उसी से
हवा,पानी,जीवन और पोषण
पर सब स्वाभाविक और निश्चिन्त.
और एक रिश्ते को पोसती हुई
बिगड़ी शक्ल,बेहाल तबियत,बेडौल शरीर
के बावजूद खुश, खिलखिलाती
भविष्य के सपने सुनहरे तागों से
बुनते हुए रिश्ते !
Tuesday, 17 September 2013
सुबहो-शाम !
1-उनींदी आँखों से
देखा अलसाये सूरज को..
अंगड़ाईयाँ लेती
पवन ..सन्दली सी...
कुछ ओस की
झिलमिलाती बूँदें कलियों पे..
और चहकती गौरैया
आँगन में..
एक जाफरानी चाय
का प्याला..
और कुछ नगमें
गुलज़ार की संजीदा आवाज़ में..
कुछ नई-नई सुबह है आज या
कुछ नया सा मुझमे..
2-सिन्दूर सा बिखरा है आसमान में..
कतरा-कतरा शाम में पिघलता
सूरज..
ठहरी सी हवा..ठंडे झोकों
के इन्तजार में..
लौटे पंछी अपने दरीचों
में..बिखरा के दाने आँगन में..
प्रकृति की ये सुबह-ओ-शाम
की जादूगरी.....
फिर ले गया कोई और एक
बेबाक सा दिन...
मेरे आँचल से ..
Sunday, 15 September 2013
मेरे घर की छत ~
१- कुछ मेहमां आये हैं..परदेस में परदेस से..
कोई दोस्ती का फलसफा नहीं उनका..
बस आये हैं ...हमारी मेजबानी देखने..
दाने डाल रखे हैं..पानी से भरी प्याली भी..
जरा वो चौकन्ने से हैं..मेरी हर आहट पे
वो मुझसे मिलते नहीं..साथ बैठते नहीं..
बस आते हैं यूँ ही और हमेशा ही ..
अपने हिस्से के दाने ले जाते हैं..
जाने कब का उधार खाता है,जो घट रहा है ,
या मैं दे रहीं हूँ उधार उन्हें ..कुछ पता नहीं..
जो भी है..बस अच्छा ये है के उन्हें ..
कोई शिकायत नहीं मेरी मेजबानी से..
और मुझे कोई तकलीफ नहीं ऐसी मेहमानी से.
२-मेरी छत के एक कोने में..पड़ी है दो बेंत की कुर्सियां,
कुछ अधलेटी सी..जैसे समन्दर किनारे धूप सेंक रही हों..
बैठी रहती हैं दोनों करीब ऐसे..जैसे गुप-चुप बातें करती हों
दो सखियाँ राजदारी की....पुरानी यादें ताज़ा करती हुई
कभी पास पड़े होते हैं..दो चाय के प्याले कभी भरे तो ..
कभी खाली और कभी चुस्कियां लेते हुए...हौले-हौले..
वहीँ दुसरे कोने में पड़ा वो झूला जो यूँ ही अकेले झूलता है
जैसे कोने में खड़ा कोई बुजुर्ग मुस्कुराता है बच्चों के खेल पे.
इनसे रौनक है मेरे घर में...घर उदास नहीं होता अकेले में भी.
Saturday, 14 September 2013
मीठी फुहार सी....
मीठी फुहार सी जो तुम आ जाओ ..
तो जेठ की दोपहर भी सावन की रिमझिम हो..
पतझड़ भी बहारों सा गुनगुनाने लगे..
कड़कती ठण्ड भी बसंत का आगाज हो..
मीठी फुहार सी जो तुम आ जाओ ..
तो जिन्दगी की तपिश को राहत मिले ..
रिश्तों पे मेरा ऐतबार ठहरे..
मेरे बेचैन दिल को करार आ जाए..
मीठी फुहार सी जो तुम आ जाओ..
तो मेरी आँखों में कँवल सी खिलो..
मेरे होंठों पे गजल सी रहो..
मेरे चेहरे पे ख़ुशी सी छलको..
मीठी फुहार सी जो तुम आ जाओ....तो !
नहीं साबित कर पाया मैं !
नहीं..साबित कर पाया मै.......तुम सबके प्रति अपने प्रेम को..
जन्म देने वाले माता-पिता को..अपने खून के संबंधों को..
अपने जीवन- साथी को.......यहाँ तक की अपने जने बच्चो को भी....
नहीं साबित..कर पाया मैं....क्या करता...
कोई सुबूत ही नहीं था...मेरी मूक भावनाओ के लिए...
कैसे साबित करता मैं.....के कब-कहाँ- कहाँ मेरी प्रार्थनाओं में तुम थे..
मैंने हर उन टोटकों का सहारा लिया..जिससे तुम्हारा जीवन सुरक्षित रहे..
फिर भी नहीं साबित कर पाया मैं...
''मानवीय भूलों से बना मैं..इन देवत्व पुरुषों को ..
इस नश्वर संसार में कुछ भी नहीं साबित कर पाया मैं.''
गलतफह्मियाँ !
जुम्मा-जुम्मा 4 दिन ही हुए थे..उन दोनों के मिले..हँसते खिलखिलाते...एक -दुसरे से झगड़ते.....
इतनी पाकीज़ा मुहब्बत के क्या कहूँ.... नजरों से ही छुआ था दोनों ने एक -दुसरे को....वो ज़रा जल्दी में रहती थी....और वो आराम से...मैंने पूछा..इत्ती जल्दी में क्यूँ रहती है..तू...वो हंसी..और बोली...चाहती हूँ के जल्दी-जल्दी जी लू इन पलों को....कहीं...ख़त्म न हो जाएँ...और चली गयी...वो कहते थे के वो १ जैसे हैं...थे भी १ जैसे....जैसे किसी चीज़ के २ टुकड़े..बिलकुल १ से..
तो चार दिन ही हुए थे मिले उनको....और परसों ही उसने अपनी सारी जिन्दगी उसके नाम वसीयत कर दी.....वो कुछ खिली-खिली सी थी......और कल अचानक उसने उसे अपनी जिदगी से बेदखल कर दिया.......वो अवाक खड़ी देखती रही...और मन ही मन सोचती रही..के मैं इतनी तेज़ी से कभी नहीं चली..जितनी जल्दी.तुम मोड़..मुड़ गए..अचानक ही...बस..किसी की बात पर..क्यूँ...उसे देख कर.....मैं भी सोचती रही क्यूँ...शायद..जो बेलें.. तेज़ी से बढती है..सूखती भी जल्दी हैं........
वो जा चुका था भारी क़दमों से...नम आँखों के साथ...और वो वहीँ बिखरी रही.....मैंने उसे समेटने की कोशिश की..पर वो उतनी भारी थी.जैसे रूह के बिना जिस्म...एक लाश...जिसे चार कंधो..पे ही उठाया जा सके....आँखे सुर्ख जर्द चेहरा...लरजते होठ...कांपता जिस्म...उसने कुछ कहा नहीं मुंह से पर आँखों से बोली के चली जाओ यहाँ से...मैं हट गयी उससे दूर....जानती हूँ उसे......अपने अकेलेपन में किसी को बर्दाश्त नहीं करती वो.........मैं दूर बैठी सोचती रही के किसकी नजर लग गयी इनको....
मैंने देखा था पहली बार..दोनों को इतना झगड़ते..दोनों लगातार बहस कर रहे..थे..बोले जा रहे थे...पता नहीं दोनों सुन भी रहे थे के नहीं..और शायद सुन ही रहे हों पर आज लफ्जो का एहसास मर चूका..था...उनके प्यार की यही तो खासियत थी..वो जिस्म का प्यार नहीं..लफ्जों का प्यार था....वो शब्द जो एक -दुसरे से कहते उसे महसूस करते थे....सुनने और महसूस करने में फर्क है...सुनना के बस अपने नजरिये से तुम्हारी बातें जानना..और महसूस करना....जैसे के उसकी बातें उसके नजरिये से भी सुनना....मगर आज वो एक-दुसरे की नजर से महसूस करना ..भूल गए......
अगले दिन....दिखी मुझे..बेजान सी...जैसे खुद को ही ढो के कहीं पहुंचा रही हो....उसने नम कागज का एक टुकड़ा थमाया और चली गयी....मैंने..घबराते हुए...खोला उसे.....देख के लगा जैसे कांपते हाथों से लिखा था उसने...स्याही....आंसुओं के चलते इतनी बिखरी हुई.के हर्फ़ दर हर्फ़ जोड़ के पढना मुश्किल हो रहा था.....पढ़ा मैंने.......
दो गुनाह थे उसके..एक तो खूबसूरत थी और..हंस के बातें करती थी सबसे........अपनी मासूम निगाहों से मासूम ही जाना उसने सबको......कभी मन में छल नहीं..दुराव नहीं छिपाव नहीं........तो उसके मन में कुछ नहीं पर लोग ! लोगों का क्या.........क्या वो भी मासूम बन जाए उसके जैसे और क्यूँ बने भई ????
उससे कोई दुआ-बन्दिगी भी कर के आता तो यूँ बताता के जैसे कई रोज बातें की हो उससे.....और उस पगली को तो खबर भी नहीं होती के वो खुद एक खबर है...उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ....के जिसे..वो निगाहों से सजदे करती थी..उसके किसी जाननेवाले से बात कर ली....और न जाने उसने क्या....मंतर फूंका......के वो बर्दाश्त न कर सका.........और बिफर पड़ा उस पर........मगर कहा न..वो कह रहे थे..सुन रहे थे..पर महसूस नहीं कर रहे थे.......बहस ने गलत मोड़ ले लिया...उसने कहा तुम्हे जाना है तो जाओ मैं रोकती नहीं जाते-जाते उसने कहा---सोच लो.......मुझे कतार में खड़े रहना पसंद नहीं .........वो बिलखते हुए भागी उसके पीछे के रुक जाओ..............पर जाने क्या सोच के पलट आई कुछ बुदबुदाती सी.............क्या...??.........कतार......कतार.......लाइन.......पंक्ति.......किसकी कतार......किस कतार मे खड़ा था वो........ओह !! विधाता......ये क्यूँ सोचा तुमने....उसने कहा तो कहा.....तुमने क्यूँ दिल में बिठा लिया......आगे उसने लिखा.......
के आज मैं अपनी ही नजरों में गिर गई,,,,,,,मैंने तुम्हारे लफ्जों से ही तो प्यार जाना था....तुमने कहा के प्यार करते हो तो महसूस किया के करते हो....तुमने कहा के तुम अच्छी हो..तुम्हारी नज़रों से देखा के अच्छी हूँ.....और हर लफ्ज़ महसूस किया जो भी तुम्हारे होठों से सुना.......तुम्हारे इस लफ्ज़ ने मुझे बाज़ार में ला पटका ...ये किसकी कतार है जिसमे तुम खड़े हो......मेरे मह्बुबों ..की आशिको की....चाहनेवालो की.....आज इसकी बारी कल तुम आना नहीं-नहीं-------मैं ऐसी नहीं......ऐसा क्यूँ कह डाला तुमने फिर......तुम जानते तो हो के तुम्हारे सिवा...कोई नहीं यहाँ ......फिर भी तुम्हारी गलती नहीं.......कुछ मेरा ही दोष होगा.....हो सके तो लौट आना......
आज जाना के क्यूँ जल्दी में रहती थी वो इतनी....जानती हूँ के वो भी...उससे अलग होके जिन्दा नहीं होगा.....कैसे..एक मासूम से रिश्ते को बड़े चाव से निगल जाती हैं गलतफहमियां !
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